क्योंकि पुरुष हूँ मैं
*क्योंकि पुरुष हूँ मैं
मुझे इतनी भी इजाज़त नहीं कि
खुलकर आंसू बहा सकूँ,
क्योंकि पुरुष हूँ मैं, साहस का प्रतीक,
पत्थर सा निष्ठुर, भावनाविहीन।
मेरा हृदय भी टूटता है,
दर्द की अग्नि में रात भर सुलगता है।
तुम तो रो सकती हो खुलेआम,
दिन के उजाले में भी,
मेरी किस्मत में रात भी नहीं।
क्रोध का सहारा लेता हूँ,
कभी नशे का,
मैं अपने जज्बातों को ,
ऐसे ही जुबाँ देता हूँ।
चाहकर भी किसी से कह नहीं पाता,
कभी-कभी मैं खुद को,
कितना हारा हुआ महसूस करता हूँ।
पुरुष हूँ मैं घर का,
मेरे कंधों पर ज़िम्मेदारी है।
न टूटकर बिखर सकता हूँ,
न दर्द होने पर रो सकता हूँ,
क्योंकि पुरुष हूँ मैं,
और हमारे समाज में,
पुरुषों को रोने का अधिकार नहीं।
❤सोनिया जाधव
#लेखनी दैनिक काव्य प्रतियोगिता
Vijay Pandey
25-Apr-2022 12:11 AM
Bahut khub 👍👍👍
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Dr. Arpita Agrawal
27-Feb-2022 06:55 PM
कटु सत्य
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Sandeep Kumar Mehrotra
07-Feb-2022 08:28 PM
सच कहा
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